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मन के मन-बुद्धि के और बुद्धि - आत्मा के अधीन एवं प्रात्मा की सहायिका होनी चाहिये । ऐसा होने पर ही आत्मा अपने आपको जान सकता है, इन्द्रियां मन और बुद्धि का कर्त्तव्य, आत्मा को बलवान् तथा पुष्ट बनाना है । बलवान् आत्मा ही अपना स्वरूप जान सकता है, विद्याध्ययन में समर्थ हो सकता है और उत्तम काम तथा कुशलानुष्ठान कर सकता है । इसलिये इन्द्रियों, मन और बुद्धि का काम आत्मा को बलवान् बनाना, आत्मा के हित को दृष्टि में रखना, आत्मा का अहित करने वाले कामों से दूर रहना है । इन्द्रियों और मनका, अपने इस कर्त्तव्य पर स्थिर रहने का नाम ही ब्रह्मचर्य' है ।
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आत्मा का हित अपना स्वरूप जानने में है । आत्मा अपना स्वरूप तभी जान सकता है, जब उसके सहायक एवं सेवक इन्द्रियां तथा मन, उसके प्राज्ञावर्ती और शुभचिन्तक हों । विपरीतावस्था में आत्मा का अहित स्वाभाविक ही
| आत्मा के सहायक तथा सेवक वे ही इंद्रियां श्रौर मन हैं, जो सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर न दौड़ें । इन्द्रियों का सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर दौड़ना, तथा मन का इन्द्रियानुगामी होना आत्मा के लिए अहित - कारक है । आत्मा का हित तभी है, जब न तो इन्द्रियां दुविषयों की ओर दौड़े और न इन्द्रियों के साथ ही साथ मन भी आत्मा का अशुभ चिन्तक बने । इन्द्रियों और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ना, दुर्विषयों की चाह न करना और सुख की लालसा से उन्हें न भोगना ही 'ब्रह्मचर्य' है ।
इन्द्रियां पांच हैं - कान, प्रांख, नाक, जीभ और त्वचा । इन पाँचों इन्द्रियों के पांच विषय हैं- शब्द, रूप, गन्ध, रस