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मैथुन में, मैथुनाङ्ग भी शामिल हैं, जिनका वर्णन आगे 'ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय' प्रकरण में किया जायेगा ।
कायिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं, जिसके सद्भाव में, शरीर द्वारा अब्रह्मचर्य की कोई क्रिया न को गई हो अर्थात् शरीर से ब्रह्मचर्य में प्रवृत्ति न हुई हो । मानसिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में दुर्विषयों का चिन्तन न किया जावे, अर्थात् मन में अब्रह्मचर्य की भावना भी न हो । वाचिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में अब्रह्मचर्यं सम्बन्धी वचन न कहा जाये । इन तीनों प्रकार के ब्रह्मचर्य सद्भाव को पूर्ण ब्रह्मचर्य कहते हैं ।
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कायिक, मानसिक कौर वाचिक ब्रह्मचर्य का परस्पर कर्त्ता, क्रिया और कर्म का सा सम्बन्ध है । पूर्ण ब्रह्मचर्य वहीं हो सकता है जहां उक्त प्रकार के तीनों ब्रह्मचर्य का सद्भाव हो । एक के अभाव में दूसरे और तीसरे का - एकदम से नहीं तो शनैः-शनैः अभाव स्वाभाविक है ।
सारांश यह कि इन्द्रियों का दुर्विषयों से निवृत्त होने, मन का दुर्विषयों की भावना न करने, दुर्विषयों से उदासीन रहने, मैथुनाङ्गों सहित सब प्रकार के मैथुन त्यागने और पूर्ण रीति से, वीर्यरक्षा करने एवं कायिक, वाचिक और मानसिक शक्ति को आत्मचिन्तन, आत्महित-साधन तथा श्रात्मविद्याध्ययन में लगा देने का ही नाम ' ब्रह्मचर्य' है ।