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उपसंहार
पूर्ण ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल शारीरिक संयम ही नहीं है किन्तु सभी इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार और मन, वचन, काय द्वारा कामभाव से सर्वथा मुक्ति है । पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव या अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु सम्भव और स्वाभाविक है । यद्यपि पूर्ण ब्रहमचर्य का सर्वांश में पालन तो गृहत्यागी साधु ही कर सकते हैं, लेकिन आंशिकरूप में गृहस्थ भी पाल सकता है और शरीर के विकास के लिए ब्रहमचर्य का पालन करना आवश्यक भी है । इसके लिए दृढ़ता की आवश्यकता अवश्य है । जिसमें दृढ़ता नहीं है, जो इन्द्रियों के किंचित् प्रकोप के सामने ही झुक जाता है, वह ब्रहमचर्य का पालन नहीं कर सकता क्योंकि इन्द्रियों के सामने थोड़ा भी झुक जाने पर इन्द्रियों का बल बढ़ता जाता है, वे अपना आधिपत्य जमाती जाती हैं और फिर ब्रहमचर्य से ही दूर नहीं फेंक देतीं, किन्तु दुराचार के गड्ढे में ही डाल देती हैं।
जिस प्रकार अह मचर्य स्वाभाविक है, उसी प्रकार विषय-भोग अस्वाभाविक भी है, जिसकी इच्छा होना प्रायः बुरे तौर पर किये गये लालन-पालन का फल है । गांधीजी के शब्दों में, 'माताएं और दूसरे सम्बन्धी अबोध बच्चों को यह सिखलाना धार्मिक-कर्त्तव्य-सामान बैठते हैं कि इतनी