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( १९५) शक्य नहीं है। इसलिए वैसे लोगों के लिए विवाह बन्धन केवल आवश्यक ही नहीं वरन् कर्त्तव्य के बराबर है।' गांधीजी आगे लिखते हैं—'मनुष्य के सामाजिक जीवन का केन्द्र एक पत्नी-व्रत तथा एक पतिव्रत ही है ।' यह तभी हो सकता है, जव स्वच्छन्दता को बुरा समझा जावे और उसे विवाहबन्धन द्वारा त्यागा जावे ।
जो लोग पर-स्त्री-पति और स्व-स्त्री-पति के विषयभोग में समान पाप मानते हैं, वे भी गलत रास्ते पर हैं। स्व-स्त्री-पति और पर-स्त्री-पति के विषय-भोग में प्रत्येक दृष्टि से बहुत ही अन्तर है, जिसका कुछ दिग्दर्शन ऊपर कराया भी जा चूका है । इसलिए वह मचर्य के अभाव में, अविवाहित जीवन, सर्वथा निन्द्य है ।
विवाह पुरुष और स्त्री के आजीवन साहचर्य का नाम है । यह साहचर्य काम-वासना की दवा और ब्रहमचर्य के समीप पहंचाने का साधन है । पाश्चात्य विद्वान् व्यूरो लिखता है कि विवाह करके भी विषय-विलासमय असंयम, धार्मिक और नैतिक, दोनों ही दृष्टि से अक्षम्य अपराध है । असंयम से वैवाहिक जीवन को ठेस, पहुंचती है। सन्तानोत्पत्ति के सिवा और सभी प्रकार की काम-वासना-तृप्ति दाम्पत्य प्रेम के लिये बाधक और समाज तथा व्यक्ति के लिए हानिकारक है।' इस कथन द्वारा ब्यूरो ने, जैन-शास्त्रों के कथन को पुष्ट किया है । जैन-शास्त्र तो इसके आद्यप्रेरक ही हैं। गांधीजी भी लिखते हैं-'विवाह-बन्धन की पवित्रता को कायम रखने के लिए भोग नहीं, किन्तु आत्म-संयम ही जीवन का धर्म समझा जाना चाहिये । विवाह का उद्देश्य, दम्पती के हृदयों से विकारों को दूर करके उन्हें ईश्वर के निकट ले जाना है।'