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( १९४) ही बुझा दी जाती तब तो इस सीमान्तर्गत घर की हानि न होती । लेकिन ऐसा न कर सकने पर, यदि आग को सीमित न कर दिया जाय, तो उसके द्वारा अनेक मकान भस्म हो जाते । ठीक यही दृष्टान्त विवाह के लिए भी है। यदि मनुष्य अपने में कामवासना की प्राग उत्पन्न ही न होने दे या उत्पन्न होने के समय ही उसे विवेक द्वारा बुझा सके, तब तो विवाह की आवश्यकता ही नहीं रहती ।.लेकिन न दवा सकने पर उस आग को विवाह द्वारा सीमित कर दिया जाता है और फिर उसे बुझाने की चेष्टा की जाती है। विवाह द्वारा कामेच्छा को सीमित कर देने से वह बढ़ने नहीं पाती और इस प्रकार मनुष्य असीम हानि से बच जाता है । यदि विषयेच्छा की आग उत्पन्न न होने देने या विवेक द्वारा उसे दवा सकने की क्षमता न होने पर भी उत्पन्न विषयेच्छा की पूर्ति के लिए स्वच्छन्दता से काम लिया जावे तो वह बढ़ कर भयंकर हानि पहुंचाने वाली हो जाती है । तात्पर्य यह है कि विवाह दुर्विषयेच्छा को बढ़ाने के लिए नहीं है किन्तु घटाने के लिए ही है और स्वच्छन्दता से दुर्विषय-भोग की इच्छा बढ़ती है, घटती नहीं। इसके सिवा विवाहित-जीवन बिताने में दया, अनुकम्पा आदि उन सद्गुणों का भी बहुत कुछ विकास हो सकता है, जिनका लाभ स्वच्छन्दता में नहीं हो सकता । सन्तान को पालने-पोसने की दया विवाहित-जीवन में ही की जाती है। स्वच्छन्दजीवन में तो उससे बचने के लिए सन्तान को नष्ट करने की ही इच्छा रहती है । इसलिए वह मचर्य न पाल सकने पर दुराचार-पूर्ण जीवन श्लाघ्य नहीं कहला सकता । इस विषय में गांधीजी लिखते हैं-'तद्यपि महाशय ब्यूरो अखण्ड ब्रहमचर्य को ही सर्वोत्तम मानते हैं, लेकिन सबके लिये यह