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________________ ( २४३ ) मौजूद है और जिसके साथ देश और समाज में प्रचलित रीति से विवाह हो चुका है । ऐसा होने पर भी कई लोग यह गुजाइश निकालने लगते हैं कि हमने स्व-स्त्रीसन्तोष-व्रत लिया है । इसलिए यदि किसी अविवाहित स्त्री से विवाह करके उसे अपनी ही बना लें तो कोई हर्ज नहीं । ऐसा करने से हमारे व्रत में दूषण न लगेगा । वास्तव में ऐसा करना प्रतिज्ञा-विरुद्ध है । जब तक यह कार्य अतिचार की सीमा तक है, तब तक तो व्रत में दूषण ही लगता है, लेकिन अनाचार के रूप में होने पर व्रत नष्ट हो जाता है। यह बात दूसरी है कि कोई अपनी इच्छानुसार व्रत ले, लेकिन आनन्द की तरह स्वदारसन्तोष-व्रत लेने पर पुनः विवाह करने का अधिकार नहीं रहता । इस व्याख्या के विषय में आचार्य हरिभद्रसूरि जी कृत 'धर्मविन्दु' प्रमाण है । इस अतिचार का एक अर्थ, दूसरे का विवाह करनाकराना भी है । बहुत लोग धर्म या पुण्य समझ कर, दूसरे लोगों का विवाह करने-कराने लगते हैं, लेकिन व्रतधारी के लिए ऐसा करना निषिद्ध है । ऐसा करने से उसका व्रत दूषित होता है। पांचवां अतिचार पांचवां अतिचार काम-भोग की तीव्र अभिलाषा है। स्वदारसन्तोष- व्रत, काम-भोग की अभिलाषा को मन्द करने के लिए ही लिया जाता है और इसीलिये इसके नाम में 'सन्तोष' शब्द लगा हुआ है। ऐसा होते हुए भी कई लोग काम-भोग की अभिलाषा को तीव्र करने की चेष्टा करते
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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