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________________ ( २७२ ) की अप्राप्त वस्तु की इच्छा करता है । जैसे-जैसे पदार्थ प्रा होते जाते हैं, वैसे ही वैसे उनसे आगे के बढ़िया पदार्थों की इच्छा होती है । इस तरह संसार की सामग्रियों का अन्त तो आ सकता है, लेकिन इच्छा का अन्त नहीं आता । इच्छा की तरह मूर्छा भी मनुष्य के साथ ही जन्मती और उत्तरोत्तर वृद्धि पाती है । बचपन में मनुष्य माता और माता के दूध से ही ममत्व करता है । फिर खेलने के पदार्थ और खाद्य पदार्थ से भी । इसी प्रकार अवस्था के बढ़ने से जैसी तृष्णा बढ़ती है, उसी प्रकार मूर्छा भी बढ़ती जाती है । मूर्छा भी शान्त नहीं होती । वृद्धत्व के कारण भी मूर्छा के अस्तित्व में ग्रन्तर नहीं पड़ता बल्कि वृद्धत्व मूर्छा की वृद्धि करता है | बचपन श्रौर जवानी में किसी पदार्थ के प्रति जितनी मूर्छा होती है, उससे कई गुना अधिक मूर्छा बुढ़ापे में हो जाती है । बचपन या जवानी में कोई व्यक्ति प्राप्त पदार्थ के व्यय में जिस प्रकार की उदारता रखता है वृद्धावस्था आने पर प्राय: वैसी उदारता नहीं रहती । वृद्धावस्था आने पर उसे पहले की तरह पदार्थ को अपने से दूर करने में दुःख होता हैं और यदि विवश होकर उसे पदार्थ त्यागना पड़ता है, अथवा उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे पदार्थ छूट जाता है, तो उसको उस समय - बचपन या जवानी में उक्त कारण से जो दुःख हो सकता है उससे कई गुना अधिक होता है । इस प्रकार अवस्था के कारण मूर्छा की वृद्धि तो अवश्य होती है पर उसमें न्यूनता नहीं आती । अधिक पदार्थों की प्राप्ति भी मूर्छा को न्यून नहीं करती, किन्तु वृद्धि ही करती है । ग्राज जिसके पास केवल चार पैसे हैं, उसकी मूर्छा उन चार पैसों में ही रहती है, लेकिन
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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