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( २७१) इच्छा की वृद्धि अवश्य होती है । इच्छा की जैसे-जैसे पूर्ति होती जाती है, वैसे ही वैसे वह तीव्र गति से बढ़ती जाती है । जो मनुष्य कभी पेट भरने के लिए रूखी सूखी रोटी और ठंड से बचने के लिए फटे मोटे कपड़े की इच्छा करता है, वही इनके प्राप्त हो जाने पर स्वादिष्ट भोजन और सुन्दर वस्त्रों की इच्छा करता है । जब ये भी प्राप्त हो जाते हैं, तब थोड़े से धन की इच्छा करता है और साथ साथ स्त्री, सुन्दर भवन तथा भोगविलास की सामग्री भी चाहता है । इन सबके मिल जाने पर पुत्र, पौत्र आदि की, फिर थोड़ी-सी भूमि की, थोड़े से अधिकार की, फिर राज्य की, साम्राज्य की, समस्त पृथ्वी की और स्वर्गादि की इच्छा करता है । एक कवि ने कहा ही है
परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतयेस पश्चात्संपूर्णः कलयति धरित्री तृणसमाम् । अतश्चानकान्त्याद् गुरुलघुतयार्थेषु धनिनामवस्था वस्तूनि प्रथयति च संकोचयति च ॥
अर्थात्-जब मनुष्य दरिद्री होता है, तब तो एक पस जौ की भूसी को ही इच्छा करता है, पर जब धनवान हो जाता है, तब सारी पृथ्वी को भी तण समान मानता है । इस प्रकार मनुष्य की अवस्था विशेष ही वस्तु के विषय में भिन्नता पैदा करती है।
इस प्रकार. जब तक कोई वस्तु प्राप्त नहीं है, तब तक तो मनुष्य को उस अप्राप्त वस्तु की इच्छा होती है, लेकिन जब वह अप्राप्त वस्तु प्राप्त हो जाती है, तब उससे भी आगे