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की इच्छा करता है लेकिन उसकी इच्छा इहलौकिक और पारलौकिक देखे सुने हुए पदार्थों तक ही सीमित नहीं रहती, किन्तु जिन पदाथों को कभी देखा सुना नहीं है, उन-उन पदार्थों की भी कल्पना करता है और उनकी भी इच्छा करता है । इस प्रकार इच्छा अनन्त ही रहती है, उसका अन्त ही नहीं आता । अर्थात् यह नहीं होता कि अब इच्छा नहीं । बुढ़ापा आने पर तो इच्छा बहुत ही बढ़ जाती है । उस समय वह कैसी होती है, इसके लिए एक कवि कहता है
वलिभिमुखमाकातं पलितैरंकितं शिरः । गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णका तरुणायते ।।
अर्थात्-बुढ़ापे के कारण मुह पर सल पड़ गये हैं, सिर के बाल पक कर सफेद हो गये हैं और शरीर के सव अग शिथिल हो गये हैं लेकिन तृष्णा तो जवान हो गई है, पहले से भी बढ़ गई है।
तात्पर्य यह कि मनुष्य के साथ ही इच्छा का भी जन्म होता है, लेकिन मनुष्य की आयु तो क्षीण होती जाती है और इच्छा वृद्धि पाती जाती है। अवस्था के कारण तृष्णा की वृद्धि तो अवश्य होती है, परन्तु उसमें न्यूनता नहीं पाती।
इच्छानुसार पदार्थों की प्राप्ति भी इच्छा को घटाने में समर्थ नहीं है । पदार्थों का मिलना भी इच्छा की वृद्धि का ही कारण होता है । संसार में ऐसा एक भी व्यक्ति न होगा, जिसकी इच्छा, इच्छानुसार पदार्थ मिलने से नष्ट हो गई हो । ऐसा होता ही नहीं है । हाँ, पदार्थों के मिलने से