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( २६६) जन्मती है । फिर जैसे-जैसे अवस्था बढ़ती जाती है, मन में चंचलता आती जाती है, पदार्थ -जगत का परिचय होता जाता है, पूर्व संस्कार विकसित होते जाते हैं और कल्पनाशक्ति की वृद्धि होती जाती है, वैसे ही वैसे इच्छा की भी वृद्धि होती जाती है । अवस्था, मन, पदार्थों का परिचय और कल्पनाशक्ति की वृद्धि के साथ ही इच्छा की भी वृद्धि होती जाती है और होते-होते इच्छा का ऐसा रूप हो जाता है. जिसके लिए शास्त्र में कहा
इच्छा हु आगाससमा अन्तिया ।
अर्थात्-जैसे आकाश का अन्त नहीं है, उसी प्रकार इच्छा का भी अन्त नहीं है ।
मनुष्य जब जन्मता है, तब उसकी इच्छा माता के दूध तक ही सीमित रहती है, अधिक नहीं होती । फिर वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती जाती है । जो मनुष्य बचपन में केवल माता के दूध की ही इच्छा करता था, वह कुछ बड़ा होकर खाद्य पदाथों, खेल-सामग्री या ऐसी ही दूसरी चीजों की इच्छा करने लगता है । जब और बड़ा होता है, तब कपड़े-लत्ते और खाद्य तथा खेल सामग्री के लिए पैसे आदि की इच्छा करता है। फिर स्त्री पुत्र पौत्र धन-दौलत प्रभृति की इच्छा करता है। इस प्रकार वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है और सांसारिक पदार्थों को अधिक-अधिक जानता जाता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती जाती है।
मनुष्य विशेषतः इहलौकिक और पारलौकिक पदार्थों