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________________ ( २७३ ) आगे यदि उसे विशाल राज्य प्राप्त हो जावे, तो वह राज्य में मूर्छित रहने लगता है । फिर उसको यह विचार नहीं होता कि मेरे पास तो केवल चार ही पैसे थे, अतः मैं इस राज्य पर मूर्छा क्यों करू ? वह उसमें मूर्छित रहता है और आगे उसे यदि विशाल साम्राज्य प्राप्त हो जावे तो उस व्यक्ति में उस साम्राज्य के प्रति भी मूर्छा रहेगी । यहां यह विचार करना भी आवश्यक है कि इच्छा और मूर्छा का अन्त क्यों नहीं होता ? इच्छा और मूर्छा का अन्त न होने का कारण यह है कि श्रात्मा सुख का इच्छुक है । वह सुख प्राप्ति के लिए ही सांसारिक पदार्थों की इच्छा और उनसे मूर्छा करता है, लेकिन सांसारिक पदार्थों में सुख है ही नहीं । सुख तो स्वयं प्रात्मा में ही है, ग्रज्ञान अथवा भ्रमवश उसको न देख कर आत्मा बाह्य पदार्थों में सुख मानता है । इसलिए सुख की इच्छा से आत्मा जिसे पकड़ता है, सुख उससे आगे के पदार्थों में दिखाई देता है । जैसे मृगतृष्णा को देख कर मृग जल की आशा से दौड़ जाता है, लेकिन उसको जल और आगे ही ग्रागे जाता हुआ जान पड़ता है, इसलिये वह आगे दौड़ कर जाता है । इस प्रकार मृगतृष्णा में जल की खोज करता हुआ वह दौड़ता - दौड़ता मर जाता है, परन्तु उसे मृगतृष्णा से जल नहीं मिलता । इसी प्रकार आत्मा पहले किसी एक पदार्थ में सुख देखता है, लेकिन जब वह पदार्थ प्राप्त हो जाता है, तब उस पदार्थ में उसे सुख नहीं जान पड़ता किन्तु प्राप्त पदार्थ में सुख जान पड़ने लगता है । इसलिए उस प्राप्त पदार्थ की इच्छा करता है इस प्रकार सुख की इच्छा से वह
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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