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( २७४) अधिकाधिक आगे के पदार्थों की इच्छा करता जाता है, परन्तु उसे किसी भी पदार्थ में सुख नहीं मिलता । फिर भी प्रात्मा को भ्रम यही रहता है, कि सुख इन पदार्थों में ही है । इस भ्रम के कारण वह पदार्थों की इच्छा करता ही जाता है। यहां तक कि पदार्थों का अन्त तो आ जाता है, परन्तु इच्छा का अन्त नहीं आता और जब इच्छा का अन्त नहीं आता, तब मूर्छा का अन्त कैसे आ सकता है ? इस प्रकार जब तक आत्मा स्वयं में रहें हुए सुख को नहीं देखता, किन्तु बाह्य पदार्थों में सुख मानता है, तब तक इच्छा और मूर्छा का भी अन्त नहीं हो सकता ।
इच्छा से मूर्छा का और मूर्छा से संग्रहबुद्धि का जन्म होता है । इच्छित पदार्थ के मिलने पर, उससे मूर्छा होती है और जिनके प्रति मूर्छा है, उनको त्यागा नहीं जा सकता। इसलिए उनका संग्रह करता है । यद्यपि पदार्थ की इच्छा सुख-प्राप्ति के लिए ही होती है और इच्छित पदार्थ के मिल जाने पर उसमें सुख नहीं जान पड़ता-- किन्तु दूसरे अप्राप्त पदार्थ में सुख जान पड़ने लगता है फिर भी प्रात्मा प्राप्त पदार्थ को छोड़ना नहीं चाहता । उस प्राप्त पदार्थ से उसे ममत्व हो जाता है, इसलिए ऐसे पदार्थों का संग्रह करता जाता है । इस प्रकार इच्छा से मूर्छा का और मूर्छा से संग्रहबुद्धि का जन्म होता है ।