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( १९२) का स्थान यदि नैमित्तिक सम्बन्ध को ही प्राप्त होता तो स्त्री-पुरुष एक दूसरे से उतने ही समय तक प्रेम करते, एकदूसरे की उतने ही समय तक पर्वाह करते, जब तक कि विषय-भोग नहीं भोगा जा चुका है या जब तक वह विषयभोग भोगने के लिये लालायित है। विषय-भोग भोग चुकने पर या इस योग्य न रहने पर, स्त्री-पुरुष एक-दूसरे की उसी प्रकार उपेक्षा करते, जिस प्रकार वेश्या की उसका जार-पति और जार-पति की वेश्या उपेक्षा करती है । विवाह प्रथा न होने पर और मनुष्य के स्वच्छन्द हो जाने पर सहानुभूति, दया और प्रेम का भी सद्भाव न रहता। स्त्री-पुरुष अपने आप को उस समय तक तो सुखी मानते रहते हैं, जब तक कि उनमें विषय-भोग भोगने की शक्ति है लेकिन इस शक्ति के न रहने पर जीवन दुःखमय, सहाराहीन एवं पश्चात्ताप-पूर्ण होता है . क्योंकि संसार में जनन-क्रिया (सन्तान प्रसव) को प्रेम, दया, सहानुभूति, अहिंसा आदि के प्रसार का ही बहुत श्रेय है । विवाह-प्रथा न होने पर सन्तान की जवाबदारी से जिस प्रकार पुरुष बचना चाहते, उसी प्रकार स्त्रियां भी बचना चाहती । परिरणामतः या तो भ्रण हत्या होती या बाल-हत्या होती या सन्तति-निरोध के कृत्रिम उपायों से काम लिया जाता और धीरे-धीरे जनन-क्रिया के साथ ही दया, प्रेम, अहिंसा, सहानुभूति आदि का भी लोप हो जाता और संसार के प्रवाह
का भी।
विवाह-प्रथा का स्थान, यदि स्त्री-पुरुष की स्वच्छन्दता को प्राप्त हो तो मनुष्यों का सांसारिक-जीवन नीरस एवं निरुद्देश्य हो जाय । उस समय अधिक से अधिक उद्देश्य, अच्छी स्त्री या अच्छे पुरुष से काम-भोग भोगना ही होता