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होता है और पर- स्त्री तथा पर- पति के साथ मैथुन करने में भी पाप होता है । फिर विवाह क्यों किया जाय ? बल्कि विवाह करने से अधिक पाप होता है क्योंकि विवाह समय में भी आरम्भ - समारम्भ होता है तथा विवाह के पश्चात् भी स्त्री को भोजन, वस्त्र आदि देने में और सन्तान के पालनपोषण, विवाह आदि में आरम्भ - समारम्भ होता है । इस तरह आरम्भ समारम्भ का पाप, परम्परा पर ही बढ़ता जाता है । इसलिये पर स्त्री से मैथुन करने की अपेक्षा विवाह करने में अधिक पाप है' इत्यादि कुतर्क पैदा करते हैं ।
इस प्रकार के विचार वाले लोग, ब्रहमचर्य के महत्त्व से तो अनभिज्ञ हैं ही, लेकिन विवाह के महत्त्व को भी नहीं समझ पाये हैं । वे समझते हैं कि विवाह केवल दुर्विषयभोग के लिए ही है, इससे अधिक विवाह का कोई मूल्य ही नहीं है । अपनी इस समझ पर वे दरदर्शिता से विचार नहीं करते । थोड़ी देर के लिए विवाह केवल विषय-भोग के लिये ही मान लिया जाय, तब भी यदि विवाह प्रथा न होती तो संसार में अशान्ति का साम्राज्य छा जाता । मनुष्य स्वभावतः अपने ऐसे प्रेमी के प्रेम में किसी दूसरे का साझी होना नहीं सह सकता; इसलिए एक ही पुरुष को चाहने वाली अनेक स्त्रियां या एक ही स्त्री को चाहने वाले अनेक पुरुष आपस में लड़लड़ कर मर जाते हैं । आज भी सुना जाता है कि एक वेश्या के पीछे अनेक नर-हत्याएं होती हैं । यदि वही वेश्या किसी एक की होती तो सम्भवत: ऐसी हिंसा का समय न प्राता । इसी प्रकार विवाह - प्रथा न होने पर मनुष्य उस दाम्पत्य- प्रेम से सर्वथा वंचित रह जाता, जो विवाहित पति-पत्नी में हुआ करता है । विवाह की प्रथा