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________________ साधना के लिए कमर कसकर खड़ा हुआ बेचारा अज्ञानी जीव क्या कर सकेगा और वह कैसे समझ पायगा कि कल्याण क्या है और अकल्याण क्या है ? मगर स्मरण रखना चाहिए कि ज्ञान, साधना का एक अंग ही है, सम्पूर्ण साधना नहीं है । ज्ञान से साधना के स्वरूप को समझा जा सकता है, साधना का लक्ष्य स्थिर किया जा सकता है और मार्ग भी निश्चित किया जा सकता है पर यह तो साधना का प्रारम्भ है, उसकी समाप्ति नहीं है। साधना को परिपूर्ण और सफल बनाने के लिए क्रिया की आवश्यकता अनिवार्य है । क्रिया के बिना जान लेने मात्र से कुछ हाथ नहीं आता । इसलिए कहा है क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गति बिना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम् ।। अर्थात् -जिस ज्ञान के अनुसार अनुष्ठान नहीं किया जाता, वह कोरा ज्ञान निरर्थक है-फलप्रद नहीं है। आप किसी नगर में पहुंचने का मार्ग जानते हैं, मगर चलते नहीं, उस ओर कदम बढ़ाते नहीं - क्रिया करते नहीं तो केवल मार्ग जान लेने मात्र से उस नगर में नहीं पहुंच सकते ।। ___ इस प्रकार क्रिया, ज्ञान पर निर्भर है, मगर ज्ञान की सार्थकता क्रिया में है । इसी कारण शास्त्र स्पष्ट रूप से यह घोषणा करता है कि वही ज्ञान सफल और सार्थक है जो आचरण को जन्म देता है । नयविशेष की अपेक्षा तो जिस ज्ञान से चारित्र का उद्भव नहीं होता, वह ज्ञान, ज्ञान ही नहीं है-अज्ञान है।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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