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इससे सहज ही समझा जा सकता है कि जैनधर्म में चारित्र को कितना अधिक महत्त्व दिया गया है | चारित्र की बदौलत ही साधु, साधु कहलाता है और श्रावक श्रावक कहलाता है । मगर आज की लोकरूढ़ि कुछ भिन्न प्रकार की हो गई है । साधु तो ग्राज भी सर्वविरति - सकल संयमको अंगीकार करने वाला ही कहलाता है, परन्तु श्रावक बनने के लिए मानो कोई मर्यादा ही नहीं रह गई है । कोई श्रावक के मूल गुणों को चाहे अंगीकार न करे तो भी वह जैन कुल में उत्पन्न होने मात्र से अपने आपको श्रावक पद का अधिकारी समझने लगता है । मगर सच्चा श्रावक तो वही कहला सकता है, जिसने गृहस्थ धर्म को प्रतिज्ञा के रूप में अंगीकार किया है । भगवान् महावीर की यह उदारता थी कि उन्होंने श्रावक-श्राविका को भी संघ में स्थान प्रदान किया, परन्तु उस संघ में वस्तुतः वही सम्मिलित माना जाना चाहिए, जिसने सम्यक्त्व के साथ अणुव्रतों को धारण किया है ।
जैन धर्म - शास्त्र में साधुओं की तरह श्रावक के चारित्र का भी विवेचन किया गया है । परन्तु मूल ग्रागम प्राकृत भाषा में है और उस भाषा को समझने वाले आज उंगलियों पर गिने जा सकते हैं । अतएव प्रत्येक गृहस्थ मूल आगमों से अपने आचार को ठीक तरह समझ नहीं सकता । इसके अतिरिक्त आगम सूत्र रूप हैं और सूत्र रूप में रचित आगमों से जैसा चाहिए, वैसा विशद बोध प्राप्त कर लेना सब के लिए सरल नहीं है । जिसने उनके अन्तस्तत्त्व को पहचाना है, वही भलीभांति उसे समझ सकता है ।
स्वर्गीय पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज ऐसे ही