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यत्किंचित्
जैनधर्म का प्रधान सन्देश है - परमात्मतत्त्व की उपलब्धि और परमात्मतत्त्व की उपलब्धि का अर्थ है - आत्मा के समस्त बन्धनों को तोड़ फेंकना, अपने ही भीतर छिपे हुए अनन्त ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेना और इस प्रकार संपूर्ण सिद्धि का लाभ करना ।
आत्मिक ऐश्वर्य या परमसिद्धि यद्यपि आत्मा के भीतर ही विद्यमान है, वह बाहर से नहीं लाई जाती, तथापि उसे प्रकट करने के लिए विकट साधना अपेक्षित होती है । उस साधना के, जैन - शास्त्रों में, संक्षेप में दो रूप बतलाये गये हैं— ज्ञान और चारित्र |
साधना के स्वरूप, लक्ष्य और मार्ग को समझने के लिए सर्वप्रथम ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञान के प्रभाव में साधक आत्मा अगर साधना के लिए उद्यत हो जाता है तो भी वह गलत राह पर चल पड़ता है और कभी - कभी ऐसा विपरीत मार्ग पकड़ लेता है कि वह अपनी साधना के लक्ष्य के सन्निकट पहुंचने के बदले अधिकाधिक दूर होता चला जाता है । उसकी साधना निरर्थक हो जाती है । अतएव ज्ञान को साधना का प्रथम अंग अंगीकार किया गया है । शास्त्रकार कहते हैं
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अन्नाणी किं काही ? किं वा णाही से पावगं ।