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(१५) मालूम नहीं था कि मैं जीव है । पुण्य के बढ़ने से यही आत्मा निगोद से निकल कर अनेक योनियों को भोगता हुआ, अनेक प्रकार के कष्ट सहता हुआ, इस मनुष्य-जन्म को प्राप्त कर सका है। प्रात्मा ने पूर्व भोगी हुई अनेक योनियों में दुर्विषय भोग को ही इष्ट मान रखा था, इसलिए इसने उन्हें खूब भोगा, लेकिन न तो इसे उन भोगों की ओर से तृप्ति ही हुई. न बार-बार के जन्म-मरण से मुक्ति ही हुई। उस समय तो इसको ऐसा ज्ञान न था-इसकी बुद्धि विकसित न थी; यह धर्म को जानता ही न था । लेकिन यदि मनुष्य-जन्म पाकर भी, यह पशु-योनि में भोगे जाने वाले भोगों को ही भोगे, उन्हीं में सुख माने, जन्म-मरण से मुक्त होने का उपाय न करे तो इससे अधिक भूल, अज्ञानता या मूर्खता और क्या होगी ? जो भोग पशु-शरीर में भी भोगे जा सकते हैं, उनके भोगने में इस मनष्य-शरीर को नष्ट करना कौनसी बुद्धिमानी है ? केवल चार आने में आ सकने वाली मिठाई के बदले में चिन्तामणि ऐसा रत्न दे देने की मूर्खता के समान क्षणिक, अस्थायी और हर प्रकार से हानि करने वाले दुर्विषय-भोग में, उत्कृष्ट मनुष्य-जन्म खो देने की मूर्खता से अधिक मूर्खता और क्या होगी ? मनुष्य-शरीर दुविषय-भोग के लिये नहीं है; किन्तु उन्हें त्यागने के लिये है । मनुष्य-जन्म प्राप्त होने का वास्तविक लाभ तभी है, जब विषय भोग त्याग कर ब्रह्मचर्य-रूपी तप का अनुष्ठान किया जाय । भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को उपदेश देते हुए कहा था :
हे पुत्रो ! देवधारियों का यह शरीर दुःखदायी-विषय भोग के योग्य नहीं है, क्योंकि दुखदायी विषय-भोग तो