________________
(858)
श्राहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण होना पशुभिःसमाना
'आहार, निद्रा, भय और मैथुन की दृष्टि से तो मनुष्य और पशु समान ही हैं, लेकिन मनुष्य में धर्म है, इसी से वह पशु की अपेक्षा बड़ा है । धर्महीन मनुष्य पशु के समान है ।'
मनुष्य में धर्म है, इसलिए वह सब प्राणियों में उत्तम माना जाता है । लेकिन श्राहारादि में ही धर्म नहीं है । यदि आहारादि में ही धर्म होता है तो उक्त श्लोक में धर्म को श्राहारादि से भिन्न न बताया जाता । इस श्लोक में धर्म hat आहारादि से भिन्न बतलाया गया है; इसलिये यह देखना है कि धर्म क्या है, जिसके होने पर मनुष्य सब प्राणियों में उत्तम माना जाता है ।
इस लोक और परलोक में जिसके द्वारा उन्नति हो, उसी का नाम धर्म है । भगवान् महावीर ने धर्म के सूत्रधर्म और चारित्र-धर्म ये दो भेद बताये हैं । इनका विवेचन यहां आवश्यक नहीं है । यहां तो केवल यह बताना है कि भगवान् ने चारित्र-धर्म की आराधना के लिये जो पांच व्रत बताये हैं, उनमें से चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करना धर्म है । इसका पालन करने पर ही मनुय सब प्राणियों में उत्तम हो सकता है । भोग भोगने या श्रब्रह्मचर्य का सेवन करने के कारण मनुष्य सब प्राणियों में उत्तम नहीं कहला सकता ।
आत्मा जब निगोद में पड़ा था, तब इसे यह भी