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________________ ( १८६) विष्टा खाने वाले नारकीय जीवों को भी मिल जाता है। अतएव, मैं कहता है कि यह शरीर दिव्य तप करने योग्य है, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और अनन्त ब्रह्मसुख प्राप्त होता है।' २-प्रावश्यक ब्रह्मचर्य । यद्यपि मनुष्य-जन्म की सफलता और पूर्णतया-धर्माचरण तो सर्वविरति ब्रहमचर्य के पालन में ही है, लेकिन सर्वविरति ब्रह मचर्य, जिसे चतुर्थ महाव्रत कहा गया है, वह तो गृह संसार का त्यागी ही स्वीकार कर सकता है। गृहसंसार में रहते हए, ऐसा न कर सकने वाले पुरुष स्त्री को कम से कम क्रमशः २५ और १६ वर्ष की अवस्था तक तो अखण्ड ब्रह्मचर्य पालना चाहिये । इस अवस्था तक अखण्ड ब्रह्मचर्य न पालना अपने आपको अवनति, रोग एवं मृत्यु के मुख में धकेलना है । स्मृतिकार कहते हैं :-- चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाऽऽधं गुरोःकुले । अविलुप्तबह मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत् ॥ -मनुस्मृति । 'पूर्णायु का चौथा भाग यानि १०० वर्ष में से २५ वर्ष गुरुकुल में रह कर, अविलुप्त रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करे और फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे ।' इस प्रकार, कम से कम २५ और १६ वर्ष की अवेस्था तक तो प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना ही चाहिए ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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