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अर्थ यह है कि जिस कन्या के साथ सम्बन्ध तो हो गया है, परन्तु पंच-साक्षी से विवाह नहीं हुआ है, ऐसी स्त्री (कन्या) के सम्भोग करना अतिचार है, क्योंकि अपनी होते हुए भी वह अपरिगृहीता है ।
वेश्या-गमन से हानि कई लोग कहते हैं कि वेश्या तो किसी की स्त्री नहीं है, इस कारण वेश्या-सम्भोग से व्रत नष्ट नहीं होता। ऐसा कहने और समझने वाले लोग, लिए हुए व्रत और त्याग के रहस्य से ही अनभिज्ञ हैं। स्वदारसन्तोषव्रत और परदारविरमण, स्त्री-भोग की लालसा को सीमित करने, शनैः शनैः कम करने के लिए हैं । लेकिन वेश्या-सम्भोग, पर-स्त्री सम्भोग से भी अधिक हानिप्रद है । वेश्या-सम्भोग से दुर्विषय-लालसा में ऐसी भयंकर वृद्धि होती है कि जिसका वर्णन करना शक्ति से परे की बात है । वेश्यागामी पुरुष दुविषय-लालसा में वृद्धि होने के कारण वेश्या के पीछे अपना सब कुछ खो बैठता है । वेश्या के पीछे, बड़े-बड़े धनियों को-अपना धन-वैभव खोकर भीख मांगनी पड़ी है। बड़े-बड़े परिवार वाले, वेश्या के कारण निःसहाय हो जाते हैं । बड़े-बड़े बलवान, वेश्या-संग से बलहीन हो जाते हैं । इतना होने पर भी जिस वेश्या के पीछे यह सब होता है, वह वेश्या किसी भी पुरुष की नहीं होती। वेश्यागामी पुरुष इस लोक में निन्दित और परलोक में दण्डित होता है । बड़े अनुभव के पश्चात् भर्तृहरि कहते हैं
वेश्याऽसौ मदनज्वाला रूपेन्धनसमेधिता । कामिभिर्गत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च ।