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________________ ( २१३ ) है, इस लोक-लाज के भय से, माता-पिता की दृष्टि में, ग्रपने अल्पवयस्क पुत्र के लिए स्त्री सहवास श्रावश्यक हो जाता है । इस प्रकार उस हानि से बचा नहीं जा सकता, जो वाल विवाह से होती है । इसके सिवा बचपन में विवाहे गये पति-पत्नी आगे चलकर कैसे-कैसे स्वभाव के होंगे, उनके रूप, गुण, शारीरिक विकास, शक्ति आदि में कैसी विषमता होगी, इसे कोई नहीं जान सकता । पति-पत्नी में विषमता होने से उनका जीवन भी क्लेशमय ही बीतता है । वाल- 1 बचपन में विवाह होने से विधवाओं की भी संख्या बढ़ती है । समाज में एक-एक, दो-दो और चार-चार वर्ष की अवस्था वाली वाल- विधवाएं दिखाई देना, -विवाह का ही कटुफल है | चेचक आदि बीमारी से वालक- पति की तो मृत्यु हो जाती है और बालिका -पत्नी वैधव्य भोगने के लिए रह जाती है । जिस पति से उस अबोध वालिका ने कोई सुख नहीं पाया है, हृदय में जिसकी स्मृति का कोई साधन नहीं है, जिसके नाम पर वैधव्य भोगने का कोई कारण नहीं है । उस पति के नाम पर, एक वालिका से वैधव्य पालन कराने का कारण बाल विवाह ही है । ऐसी बाल- विधवा अपनी वैधव्यावस्था किस सहारे से व्यतीत कर सकेगी, यह देखने की आवश्यकता भी लोग नहीं समझते ! तात्पर्य यह है कि सहवास न होने पर भी बालविवाह हानिप्रद ही है । विवाह हो जाने पर बालक पतिपत्नी, ज्ञान और विद्या से भी बहुत कुछ पिछड़े रह जाते हैं तथा एक दूसरे के स्मरण से वीर्य में दोष पैदा हो जाता है । इसलिए बाल विवाह त्याज्य है ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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