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( २६७) ‘सत् ' अर्थात् सदा रहने वाला 'चिद् ' अर्थात् चैतन्य रूप है, फिर भी कर्मलित होने के कारण अपने में रहा हया सुख नहीं देखता, स्वयं में जो सुख है उस पर विश्वास नहीं करता, लेकिन चाहता है सुख ही । इसलिये जिस प्रकार स्वयं की नाभि में ही सुगन्ध देने वाली कस्तूरी होने पर भी, मृग घास-फूस को सूघ-सूघ कर उसमें सुगन्ध खोजता है, उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं में रहे हुए सुख को भूल कर दृश्यमान जगत् में सुख मानने लगता है। दृश्यमान जगत् में सुख है, यह समझ कर आत्मा बुद्धि को और बुद्धि मन को प्रेरित करती है, तथा मन उस सुख को प्राप्त करने के लिए चंचल हो उठता है । इस प्रकार मन में सांसारिक पदार्थों की इच्छा उत्पन्न होती है। अर्थात् बाह्य जगत् में सुख मानने से मन में चंचलता आती है और मन की ऐसी चंचलता से इच्छा का जन्म होता है।
मन विशेषतः इन्द्रियानुगामी होता है । यह इन्द्रियों के साथ जाना अधिक पसन्द करता है । रुकावट न होने पर मन इन्द्रियों के प्रिय मार्ग पर ही चलता है और इन्द्रिय अपने विषयों में ही सुख मानती है । यद्यपि विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियां ज्ञानेन्द्रिय कहलाती हैं, उनका काम पदार्थों का ज्ञान कराना है, लेकिन जब बुद्धि मन के आधीन हो जाती है और मन इन्द्रियों का अनुगामी बन जाता है, इन्द्रियों के साथ हो जाता है, तब इन्द्रियाँ स्वेच्छाचारिणी बन जाती हैं तथा विषयों में सुख मान कर उनकी ओर दौड़ने लगती हैं । इस प्रकार कर्मलिप्त होने के कारण प्रात्मा सुख चाहता हुया भी बुद्धि पर शासन नहीं कर सकता । बुद्धि से उसे अच्छी सम्मति नहीं मिलती, किन्तु