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जितना भी त्याग किया जा सके, मर्यादा जितनी कम की जा सके और इच्छा को जितना घटाया जा सके, उतना ही अच्छा है । यह न हो कि सीमा पहले ही बहुत बढ़ा कर रखी जावे । उदाहरण के लिए पास में सम्पत्ति तो केवल पांच ही रुपये हैं और व्रत में लाख रुपये की मर्यादा करता है । यद्यपि लाख रुपये से अधिक की इच्छा का त्याग तो अच्छा ही है, फिर भी ऐसा करने से लाख रुपयों की चाह रहती ही है । इसलिए ऐसा करना वर्तमान में तृष्णा को रोकना नहीं है । किन्तु यही कहा जा सकता है कि वर्तमान में तो तृष्णा बढ़ी हुई है, परन्तु तृष्णा को सीमित करने का इच्छुक अवश्य है । इस प्रकार का व्रत विशेष प्रशनीय और प्रशस्त नहीं कहा जा सकता । प्रशंसनीय और प्रशस्त तो वही व्रत है, जिसमें इच्छा को इतना सीमित किया जावे, जिससे अधिक सीमित करने पर गार्हस्थ्य जीवन निभ ही नहीं सकता ।
इस व्रत से यथेष्ट लाभ उठाने के लिए आवश्यक है प्रत्येक पदार्थ की मर्यादा करना और जहां तक हो सके मर्यादा की सीमा बहुत संकुचित रखना । हो सके तो जो पदार्थ पास हैं, उनमें से भी कुछ त्याग कर फिर मर्यादा करना चाहिए । ऐसा न हो सके, तो जो पदार्थ पास हैं उनसे अधिक की मर्यादा न करना । पास तो बहुत कम है। और मर्यादा बहुत अधिक की करे, यह ठीक नहीं है । इस विषय में, आनन्दादि श्रावक का व्रत स्वीकार करना आदर्श स्वरूप है । आनंद श्रावक ने उतनी ही सम्पत्ति की मर्यादा की, जितनी उसके पास थी । उससे अधिक की मर्यादा नहीं की थी ।