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(३२४ ) अपने अधिकार में ही रखूगा । इसी प्रकार भाव की. भी मर्यादा करना उचित है ।
__ जो परिग्रह को दुख तथा बन्धन का कारण मानता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है। लेकिन जो ऐसा मानता तो है फिर भी स्वयं को सम्पूर्ण परिग्रह त्यागने में असमर्थ देखता है, वह इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करता है । जो परिग्रह को दुःख तथा बन्धन का कारण मान कर इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करता है, वह विस्तीर्ण मर्यादा नहीं रखता, किन्तु संकुचित मर्यादा रखता है क्योंकि उसका ध्येय परिग्रह को सर्वथा त्यागना होता है और इस ध्येय तक तभी पहुंचा जा सकता है जबकि ममत्व को अधिक से अधिक घटाया जाय ।
इच्छा परिमारण व्रत का उद्देश्य ममत्व को घटाना है इसलिए मर्यादा अधिक से अधिक संकुचित रखनी चाहिए। विस्तीर्ण मर्यादा रखना ठीक नहीं । मर्यादा जितनी संकुचित होगी, दुःख और संसार-भ्रमण भी उतना ही संकुचित हो जायेगा तथा मर्यादा जितनी विस्तीर्ण होगी, दुःख और जन्म-मरण भी उतना अधिक रहेगा। इसलिए यथाशक्ति मर्यादा को अधिक से अधिक संकुचित रखना चाहिए और ऐसा करने के लिए यह ध्यान में रखना चाहिए कि अधिक परिग्रह अधिक दुःख का कारण है तथा अल्प परिग्रह अल्प दुःख का कारण है । लेकिन परिग्रह है दुःख का ही कारण और इससे जो जितना निवृत्त होता है, उतना ही वह दुःखमुक्त होता है ।
इस व्रत को स्वीकार करने में सांसारिक पदार्थों का