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________________ ( ३२३ ) जहां तक हो सके वहां तक तो भगवान् महावीर के उपदेशानुसार समस्त पदार्थो को त्याग कर अपरिग्रही होना ही अच्छा है । आत्मा का पूर्ण कल्याण तो इसी में है । फिर भी यदि परिग्रह को सर्वथा नहीं त्याग सकते, तो महापरिग्रही तो न रहो । महा परिग्रह तो त्याग दो ! ऐसा करने वाला, साधु नहीं तो श्रावक तो होगा ही और मोक्ष का पथिक भी कहलायेगा । सांसारिक पदार्थ रूपी टुकड़ों से जितना भी ममत्व है, प्रत्येक दृष्टि से उतनी ही हानि भी है । सांसारिक पदार्थ, मोक्ष के अनन्त सुख से तो वंचित रखते ही हैं, साथ ही उनके कारण इस लोक में भी अनेक प्रकार की चिन्ता, अनेक प्रकार के दुःख और सब प्रकार के पाप होते हैं । इसलिए सांसारिक पदार्थों को जितना भी त्यागा जा सके, त्यागना चाहिए । इच्छा परिमारण व्रत को, तीन कररण, तीन योगों में से जिस तरह भी इच्छा हो, स्वीकार किया जा सकता है और द्रव्य क्षेत्र काल भाव की भी जैसी चाहे, वैसी मर्यादा की जा सकती है । फिर भी यह व्रत इच्छा को मर्यादित करने का है और इच्छा का उद्गम स्थल मन है । इसलिए इस व्रत को एक करण, तीन योग से स्वीकार करना ही ठीक है । इस प्रकार द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के विषय में भी मर्यादा करनी चाहिए कि मैं द्रव्य से अमुक वस्तु के सिवा अधिक इच्छा न करूंगा, न इनके सिवा और वस्तु अपने अधिकार में ही रखूंगा । क्षेत्र से, अमुक क्षेत्र से बाहर की कोई वस्तु मर्यादा में ही रखूंगा । काल के विषय में भी मर्यादा करना कि मैं इतने दिन, मास, वर्ष या जीवन भर इन-इन चीजों से अधिक की न तो इच्छा ही करूंगा, न
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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