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________________ ( ३२२ ) हैं, उनकी गणना कुप्य में है । जिनकी इच्छा होती है या हो सकती है और जो गृहस्थी में काम आते हैं या आ सकते हैं, उन सब पदार्थों का भी परिमाण करना । कुप्य का अर्थ साधारणतया गृहस्थी का फैलाव ( घर बाखरा अर्थात् घर में जो छोटी बड़ी चीजें होती हैं) किया जाता है । इसलिए इसका परिमाण करना कि मैं इतने से अधिक का बाखरा न रखूंगा, न इतने से अधिक की इच्छा ही करूंगा । इस प्रकार समस्तं वस्तुनों के विषय में यह मर्यादा करना कि मैं इतने परिमाण से अधिक कोई वस्तु न तो अपने अधिकार में रखूंगा, न इतने से अधिक की इच्छा ही करूंगा, इच्छा - परिमाण या परिग्रह - परिमाण व्रत कहलाता है । जो परिग्रह से सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकते, उन गृहस्थों को यह व्रत तो स्वीकार करना ही चाहिए । इस व्रत को स्वीकार करने से उनके गृहस्थ - जीवन में किसी प्रकार की कठिनाई भी नहीं आती और अनन्त इच्छा भी नहीं रहती । इस व्रत को स्वीकार करने वाला, महा परि ग्रही नहीं कहलाता, किन्तु अल्प परिग्रही कहलाता है । इस कारण यह व्रत स्वीकार करने वाले की गणना धार्मिक लोगों में होती है । वह व्यक्ति धर्मात्मा बन जाता है । ऐसा व्यक्ति महान् पाप से बच कर मोक्ष मार्ग का पथिक होता है । यों तो परिग्रह से सर्वथा मुक्त होना ही श्रेयस्कर है, भगवान् महावीर का उपदेश भी यही है, लेकिन जो लोग परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, फिर भी भगवान् के उपदेश पर विश्वास रख कर कुछ भी त्याग करते हैं, उनको भी लाभ होता है ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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