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सत्यवादी धर्मात्मा नहीं बन सकते । वैसे तो सत्य को सब मानते हैं, लेकिन इसे पूरी तरह कार्य रूप में नहीं लाते । • सत्य को जैन-शास्त्रों ने तो धर्म के प्रधान अङ्गों में से एक माना है, परन्तु अन्य धर्मों में भी सत्य को यही स्थान प्राप्त है । महाभारत (शांति पर्व) में कहा है :
. नास्ति सत्यात्परो धर्मः
अर्थात्-सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि सत्य को सभी ने धर्म के प्रधान अंगों में माना है। सत्य की विशेष प्रशंसा के लिए महाभारत में कहा है
सत्यस्य वचनं साधुन सत्याद्विद्यते परम्
सत्य वचन ही सब से श्रेष्ठ है । सत्य से उत्तम और कुछ भी नहीं है । इसी तरह धर्म की उत्पत्ति का स्थान सत्य को ही माना है । यथा
सत्येनोत्पद्यते धर्मो दयादानेन वर्द्धते ॥ . सत्य से धर्म की उत्पत्ति होती है और दया दान से उसकी वृद्धि होती है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में सत्य की प्रशंसा में कहा है कि:
'मन्त्र, औषधि और विद्याओं का साधन सत्य से होता है । चारण (देव विशेष) तथा श्रमणों की आकाश-गमनादि विद्याएँ सत्य के प्रभाव से ही सिद्ध होती हैं। सत्य, मनुष्यों का वन्दनीय, देवताओं का अर्चनीय, असुरगणों का पूजनीय