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सत्य का महत्त्व
सच्चमि धिई कुव्वहा । एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसइ ॥
-प्रा० सू० प्र० श्रु० यथावस्थित वस्तुस्वरूप को प्रकट करने वाला सत्य ही है। कुमार्ग का परित्याग करके जो मनुष्य त्याग को ग्रहण करता है और उसके पालन में धैर्य रखता है, वही तत्त्वदर्शी, सब पाप-कर्मों का नाश करता है।
शास्त्र के उक्त प्रमाण से प्रकट है कि सत्य सर्व पापों का नाश करने वाला है। बिना सत्य को अपनाये, वे कर्म जो अनन्त काल से जीव को घेर रहे हैं, दूर नहीं होते । तात्पर्य यह है कि, पापों का नाश करके स्वर्गादि सुखों को प्राप्त कराने वाला सत्य ही है ।
संसार में प्रत्येक मनुष्य धर्म का इच्छुक होता है और अपनी आत्मा का कल्याण चाहता है । आत्मा का कल्याण धर्म से ही होता है । जिससे कि आत्मा का कल्याण होता है, उस धर्म में प्रधान वस्तु 'सत्य' ही है । यदि धर्म से सत्य को पृथक् कर दिया जाय तो धर्म नाममात्र के लिए शेष रह जायेगा अर्थात् अपूर्ण होगा। लेकिन आप धर्मात्मा तभी बन सकते हैं जब वास्तविक सत्य का पालन करें । नामधारी