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________________ विषयारम्भ पांच व्रतों में से तीसरा व्रत 'अस्तेय' या श्रदत्तादानविरमण है । अस्तेय या अदत्तादान - विरमरण, स्तेय या दत्तादान के प्रभाव को कहते हैं । स्तेय या श्रदत्तादान का अर्थ है चोरी । चोरी से निवृत्ति के लिये जो व्रत धारण किया जाता है, उसे 'अदत्तादान - विरमण ' या ' अस्तेय व्रत कहते हैं ! " इस व्रत को धारण करने की आवश्यकता और इससे होने वाले लाभ बताने के पहिले, यह आवश्यक प्रतीत होता है कि इस व्रत को धारण करने के लिये जिस चोरी से निवृत्त होना पड़ता है, उसका कुछ रूप बताया जाय । अतएव संक्षेप में पहिले इसी पर विचार कर लें । मन, वचन, काय द्वारा दूसरे के हकों को स्वयं हरण करना, दूसरे से हरण करवाना या इसका अनुमोदन करना, चोरी कहलाता है । अर्थात् जिस पर अपना वास्तविक रीति से अधिकार नहीं, फिर वह अधिकार चाहे रहा ही न हो, या रहा हो, लेकिन त्याग दिया हो, उस पर बिना उसके स्वामी की आज्ञा के अधिकार करने, उसे अपने काम में लेने और उससे लाभ उठाने को चोरी कहते हैं । मन में दूसरे के हकों को हरण करने के संकल्पविकल्प करना, मानसिक चोरी है । वचन द्वारा दूसरे के हकों को हरण करना, या दूसरे की वारणी को छिपाना, वाचिक चोरी है । इसी प्रकार, जिन कार्यों के करने से दूसरे के
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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