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ज्ञानी जन कहते हैं-समस्त इंन्द्रियों पर अंकुश रखना और विषयभोग में इंन्द्रियों को प्रवृत्त न होने देना, पूर्ण ब्रह्मचर्य है और वीर्य की रक्षा करना अपूर्ण ब्रह्मचर्य है । आज वीर्य रक्षा तक ही ब्रह्मचर्य की सीमा स्वीकार की जाती है पर वास्तव में सब इंद्रियों और मन को विषयों की ओर प्रवृत्त न होने देना पूर्ण ब्रह्मचर्य है । केवल वीर्यरक्षा अपूर्ण ब्रह्मचर्य है । अलबत्ता अपूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना के द्वारा पूर्ण ब्रह्मचर्य तक पहुंचा जा सकता है ।
३--वीर्य का दुरुपयोग
देश में आज जो रोग, शोक, दरिद्रता आदि जहांतहां दृष्टिगोचर होते हैं उन सब का एक मात्र कारण वीर्यनाश है । आज बेकार वस्तु की तरह वीर्य का दुरुपयोग किया जा रहा है। लोग यह नहीं जानते कि वीर्य में कितनी अधिक शक्ति विद्यमान है । इसी कारण विषय-भोग में वीर्य का नाश किया जा रहा है । उसी में आनन्द माना जा रहा है । ऐसा करने से जब अधिक संतान उत्पन्न होती है तो घबराहट पैदा होती है । पर उनसे मैथुन त्यागते नहीं बनता । भारतीयों को इस प्रश्न पर गहरा विचार करना चाहिये । विदेशी लोग ब्रह्मचर्य की महत्ता को भले ही न समझते हों या स्वीकार न करते हों, परन्तु भारत में तो ऐसे महान् ब्रह्मचारी हो गये हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य द्वारा महान् शक्ति लाभ कर जगत के समक्ष यह आदर्श उपस्थित कर दिया है कि ब्रह्मचर्य के प्रशस्त पथ पर चलने में ही मानव समाज का कल्याण है । ब्रह्मचर्य ही कल्याण का मार्ग है । यह समझते-बूझते हुए भी विषय-भोग में सुख मानना और