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________________ ( ६४ ) आजकल के लोगों में दूसरे को मिथ्या उपदेश देने की प्रवृत्ति ज्यादा नजर आती है । यदि स्पष्ट रीति से मिथ्या उपदेश न देंगे तो बात को इस प्रकार घुमा कर कहेंगे कि सुनने वाले के समीप वह उपदेश का कार्य करे । इस प्रकार उपदेश देने वाले के लिये सुनने वाला जो सम ता है कि ये अनुभवी हैं और जो कुछ कह रहे हैं, वह मेरे हित के लिये है । लेकिन यह उसका उपदेश भ्रम मात्र होता है । लोग इस बात को नहीं विचारते कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ उसका प्रभाव सुनने बाले पर कैसा पड़ेगा और उसका परिणाम क्या होगा ? उनका ध्येय तो कुछ और ही रहता है । जैसे एक आदमी ने दूसरे से कहा कि - 'मेरा पेट दुखा करता है, सिर दुखा करता है, या भोजन हजम नहीं होता ।' सुनने वाले ने इसके उत्तर में कहा कि - 'ऐसा ही हाल मेरा भी रहा करता था, लेकिन जब से मैंने बीड़ी, सिगरेट, गांजा या चाय पीना प्रारम्भ किया, तब से यह रोग चला गया ।' यद्यपि ऐसा कहने वाले ने दुर्व्यसनों का स्पष्ट उपदेश नहीं दिया, तथापि उसके कहने का तात्पर्य यही है कि वह भी इन्हें पीये । यदि ऐसा करने वाला इन्हें पीने के लिये स्पष्ट कहता, तब तो इस उपदेश की गणना अतिचार में न होकर अनाचार में होती, लेकिन उसने स्पष्ट नहीं कहा, इसलिये प्रतिचार है । यह बात तो इस अतिचार को समझाने मात्र के लिये कही गई है । लोग ऐसा ही नहीं, बल्कि ऐसे - ऐसे मिथ्या उपदेश दिया करते हैं कि सुनने वाला, महान् अन्धकार में जा गिरता है, जहां से उसे निकालना कठिन हो जाता है । जैसे - किसी के " मैं गरीब हूँ" यह कहने पर
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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