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(४०) साधुओं के लिए ही बतलाया है और श्रावकों को स्थूल मषावाद का त्याग बतलाया है । यदि गृहस्थ श्रावक पूर्ण या किसी अश में, सूक्ष्म मृषावाद से भी बच सके, तो कोई बुराई की बात नहीं है, लेकिन शास्त्रकारों ने उसके लिए स्थूल-मृषावाद का त्याग ही आवश्यक बतलाया है क्योंकि सूक्ष्म-मषावाद के त्याग में, सत्य की जो व्याख्या पहले की गई है, उसका पूर्ण रीति से पालन करना पड़ता है और उसके विरोधी झूठ का सर्वथा त्याग करना पढ़ता है । लेकिन ग्रहस्थ श्रावक संसार में रहता है इसलिए वह यदि सूक्ष्म झठ का त्याग करता है, तो उसे संसार में अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है । इसलिए श्रावक को शास्त्रीय दृष्टि के सूक्ष्म-झूठ का त्याग न बतला कर शास्त्रकार ने उन्हें स्थूल झूठ त्यागने का ही उपदेश दिया है ।
कुछ लोगों का कथन है कि श्रावकों को सर्वथा झूठ न बोलने का ही उपदेश देना चाहिए, सूक्ष्म-स्थूल के भेद को न समझाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से सूक्ष्म-झठ का अनुमोदन होता है । लेकिन ऐसा कहने वाले लोग जैनशास्त्र के रहस्यों से अनभिज्ञ हैं, उन्हें जैन-शास्त्र के अगाध विचारों का अच्छी तरह ज्ञान नहीं है । जैन-शास्त्र ऐसी किसी बात का निषेध नहीं करते, जिनके बिना मनुष्यों का काम न चल सकता हो । ऐसी अवस्था में उन श्रावकों को, जो अपने सांसारिक कार्यों को करते हुए सत्य का पालन चाहते हैं, यदि स्थूल और सूक्ष्म झूठ के भेद न बतलाये गए, तो वे सत्य का पालन कैसे कर सकते हैं ? सूक्ष्म से तो गृहस्थ श्रावक सर्वथा बच नहीं सकते और लौकिक में जिस झूठ को झूठ कहा जाता है, उस झूठ का स्थूल झूठ