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(४४) ऐसी निर्दोष वाणी का प्रयोग करना चाहिये जिससे किसी को कष्ट न हो।
तात्पर्य यह है कि सत्य भी प्रिय हो । किसी को दुःख देने वाले अप्रिय सत्य की सब ने निन्दा करके उसे त्वाज्य बताया है । चाणक्य ने अपनी नीति में कहा है
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् । नीचप्रसंगः कुलहीनसेवा; चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ।।
अत्यन्त क्रोध, कटु-वचन, अपने जनों से वैर, नीच का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में रहते हैं । और कहा है- . 'परस्परस्य मर्माणि, ये भाषन्ते' नराधमाः । त एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत् ॥'
__'जो नराधम परस्पर अन्तरात्मा को दुःखदायक वचन भाषण करते हैं, वे विमौटे में पड़ कर सांप की तरह निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं।'
____ मनु ने अपनी स्मृति में कहा हैसत्यं ब्रू यात प्रियं ब्रू यान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
‘सत्य कहे और प्रिय कहे, अप्रिय सत्य भी न कहे ।'
अप्रिय वचन की इस प्रकार सब धर्म के शास्त्रों ने निन्दा की है और सत्य होते हुए भी उस सत्य को, जिससे