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किसी को दुःख हो, झूठ ही के समान माना है । इसके विपरीत प्रिय वचन की प्रशंसा में चाणक्य ने कहा है
'पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम् । मूढः पाषाण-खण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते ॥' ___पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं- जल, अन्न और प्रिय वचन ।' किन्तु मूों ने पापारण के टुकड़े को रत्न संज्ञा दे रखी है।
'प्रियवाक्यप्रदानेन, सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । तस्मात्तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता ॥'
‘मधुर वचन के बोलने से सब जीव सन्तुष्ट होते हैं, इस कारण उसी का बोलना योग्य है । वचनों में कुछ खर्च तो होता ही नहीं है, फिर इसमें दरिद्रता क्यों ?'
इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि किसी को प्रसन्न करने के लिये भूठमूठ ही प्रशंसा की जाय और कोई बात सुनाई जाय । झूठ की गणना तो सदैव झूठ में ही होती है । शास्त्र ने अप्रिय सत्य को त्याज्य तो अवश्य कहा है, किन्तु प्रिय झूठ को ग्राह्य नहीं कहा है।
इन सब बातों पर विचार करके श्रावक को इस दूसरे स्थूल मषावाद विरमण व्रत को धारण करना उचित ही है। इस एक व्रत के धारण करने से श्रावक अनेकों पापों और दुर्व्यसनों से छूट सकता है । इसके लिए एक दृष्टान्त दिया जाता है।