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पैसे का संग्रह करके भी सुख की सांस नहीं ले सकते । पैसे के लिए आपस में लड़ाई-झगड़े होते हैं, हजारों मनुष्यों का खून बहाया जाता है। इसका बाहरी कारण कुछ भी बताया जाय, परन्तु असली कारण तो द्रव्य के संग्रह की भावना ही है । इतिहास स्पष्ट बतला रहा है कि जब से मानव-समाज में संग्रह-परायणता जागी है तब से संसार की दयनीय दशा आरम्भ हुई है ।
धन व्यावहारिक कार्यों का एक साधन है । धन से व्यवहारोपयोगी वस्तुएं प्राप्त की जा सकती हैं । परन्तु आज तो लोगों ने इस साधन को साध्य समझ लिया है और वे इसकी प्राप्ति में सारा जीवन व्यय कर रहे हैं । तुम इस बात का विचार करो कि धन तुम्हारे लिए है या तुम धन के लिए हो ? कहने को तुम कह दोगे कि हम धन के लिए नहीं है, धन हमारे लिए है । परन्तु क्या व्यवहार में भी यही बात है ?
. सर्वप्रथम तुम अपने को समझो । विचार करो कि तुम कौन हो ? तत्पश्चात् इस बात को सोचो कि धन किसके लिए है ? तुम रक्त, मांस या हड्डी नहीं हो । ये सब चीजें शरीर के साथ ही भस्म होने वाली हैं। अतएव धन रक्त-मांस आदि के नहीं, आत्मा के लिए है । इस बात को भलीभांति समझ कर प्रात्मा को धन का गुलाम मत बनाओ । जो सत्य को समझ लेगा, वह धन का दास नहीं बनेगा, स्वामी बनेगा । वह धन को साध्य नहीं, साधन-मात्र समझेगा । वह धन के लिए जीवन बर्बाद नहीं करेगा किन्तु जीवन के उत्कर्षसाधन में धन को भी निमित्त बनाएगा ।