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विषय-प्रवेश
दुःख का मूल कारण तृष्णा है । चिउंटी से लगा कर चक्रवर्ती पर्यन्त सभी जीव तृष्णा के पीछे-पीछे दौड़ लगा रहे हैं । खेद की बात यह है कि उस दौड़ का कहीं अन्त नहीं है, कहीं विराम नहीं है, तृष्णा की मंजिल कभी तय हो नहीं पाती । उसका तय होना संभव भी नहीं है, क्योंकि लक्ष्य स्थिर नहीं है । पहले निश्चिय किये हुये लक्ष्य पर पहुंचने को हुए कि लक्ष्य बदल कर आगे बढ़ जाता है । इस प्रकार संसार में दौड़-धूप मची रहती है । मनुष्य पहले विवाह करके सुख की प्राकांक्षा करता है - विवाह कर लेना उसका लक्ष्य होता है । परन्तु विवाह होते ही सन्तान की प्रभिलाषा उत्पन्न हो जाती है । कदाचित् सन्तान हो गई तब भी तृष्णा का अन्त कहां ? वह और आगे बढ़ती हैसंतान के विवाह की इच्छा पैदा करती है । इसके बाद मनुष्य को पौत्र चाहिए, प्रपौत्र चाहिए और न जाने क्याक्या चाहिए । इस चाहिए के चंगुल में फंस कर मनुष्य बेतहाशा भाग-दौड़ लगा रहा है । कभी किसी क्षण शांति नहीं, संतोष नहीं और निराकुलता नहीं । भला इस दौड़धूप में सुख कैसे मिल सकता है ? यह संसार की व्याकुलता का कारण है । इसी तृष्णा से दुःख, शोक और संताप की उत्पत्ति होती है ।
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