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तुम अपनी कृपणता के कारण धन का व्यय नहीं कर सकते पर धन तुम्हारे प्राणों का भी व्यय कर सकता है !
तुम धन को चाहे जितना प्रेम करो, प्राणों से भी अधिक उसकी रक्षा करो, उसके लिये भले ही जान दे दो, लेकिन धन अन्त में तुम्हारा नहीं रहेगा - नहीं रहेगा । वह दूसरों
का बन जायगा ।
तुम धन का त्याग न करोगे तो धन तुम्हारा त्याग कर देगा । यह सत्य इतना स्पष्ट और ध्रुव है कि इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में विवेकवान् होते हुए भी इतने पामर क्यों बने जा रहे हो ? तुम्हीं त्याग की पहल क्यों नहीं करते ? क्यों स्वत्व के धागे को तोड़ कर फेंक नहीं देते ? स्वत्व को त्याग देने का अर्थ यह नहीं है कि तुम उसे फैंक दो । इसका अर्थ यही है कि उसे सार्वजनिक कामों में लगाओ ।
अगर आप लोग भी अपनी सम्पत्ति से पाप न करके, उसके ट्रस्टीभर बने रहो तो क्या उस सम्पत्ति को कुछ दाग लग जायगा ? हां, उस अवस्था में अपने भोग-विलास के लिए उसका दुरुपयोग न कर सकोगे । लेकिन बहुत लोगों की तो ट्रस्टी बनने की भावना ही नहीं होती । क्या श्रावक की जिन्दगी ऐसी होती है कि वह धन के कीचड़ में फंसा रहे और उससे आत्मा को मलीन बना डाले ? उसे परोपकार में न लगावे ? क्या श्रावक को धर्म पर विश्वास नहीं है ? बैंक पर विश्वास करके उसमें लाखों रुपया जमा करा देने वालों को धर्म रूपी बैंक पर क्या विश्वास नहीं है ?
मैं श्रापका धन नहीं चाहता । मेरे पास जो कुछ था