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________________ ( ३०३ ) हानिप्रद है । इन्द्रिय और मन से बड़ा आत्मा है । इसलिए इन्द्रिय और मन को आत्मा के अधीन रख कर इनके द्वारा के ही कार्य करने चाहिये जिनसे आत्मा का हित हो । यह जानने के कारण ही उन्होंने पदार्थों से ममत्व नहीं किया, किन्तु प्राप्त पदार्थों को त्याग कर अपरिग्रह व्रत स्वीकार किया । परिग्रह में सुख मानना भारी अज्ञान है । जो परिग्रह में सुख मानता है वह परिग्रह को कदापि नहीं त्याग सकता । परिग्रह को सर्वथा या आंशिक रूप से वही त्याग सकता है, जो उसे दुःख का कारण जानता है और रानी कमलावती की तरह बन्धन रूप मानता है । भृगु पुरोहित द्वारा त्यक्त धन जब राजा इक्षुकार के यहां आ रहा था, तब राजा इक्षुकार की रानी कमलावती ने अपने पति से कहा था कि आप यह क्या कर रहे हैं ? आप दूसरे द्वारा त्यागे गये धन को अपना कर, वमन की हुई वस्तु को खाने के समान कार्य क्यों कर रहे हैं ? आप यदि यह कहते हों कि ऐसा विचारा जावे तो फिर धन कहां से आयेगा और यह साज शृङ्गार तथा ठाठ-बाट कैसे निभेगा, तो इसके उत्तर में मैं यही कहती है कि मैं इस समस्त साज शृङ्गार और ठाठ-बाट को बन्धन रूप ही मानती हूँ । नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा संताण छिन्ना चरिस्सामि मोरगं । श्रचिणा shaणा उज्जुकड़ा निरामिसा परिग्गहारंभ नियत्त दोसा ||
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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