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( ३०४) अर्थात्- हे महाराजा, जिस प्रकार पीजरे में पक्षी आनन्द नहीं मानता, उसी प्रकार मैं भी इस राज-सम्पदा में , आनन्द नहीं मानती । किन्तु जिस प्रकार सोने का बना हो अथवा लोहे का बना हो, पक्षी के लिए पीजरा बन्धन रूप ही है, उस पीजरे से मुक्त होने पर ही पक्षी स्वयं को सुखी मानता है, परन्तु विवश होकर परतन्त्रता का दुःख भोगता है, उसी प्रकार मैं भी इस राज्यवैभव को अपने लिए बन्धन रूप ही समझती हूँ । मैं यह मानती हूँ कि चाहे महान् सम्पत्ति हो या अल्प दोनों ही. बन्धन रूप हैं। बल्कि जिसके पास जितनी अधिक सम्पत्ति है, वह उतने ही अधिक बन्धन में है। इसलिए अब मैं प्रारम्भ-परिग्रह त्याग कर, विषय कषाय रूप मांस से रहित होकर और स्नेह जाल को तोड़ कर संयम लूगी तथा सरल कृत्य करती हुई स्वतन्त्र पक्षी की तरह विचरण करूंगी।
इसी प्रकार रानी कमलावती ने परिग्रह को बन्धन तथा दुःख का कारण माना और परिग्रह को त्याग कर अपने पति सहित संयम स्वीकार कर लिया। रानी कमलावती की ही तरह जो व्यक्ति परिग्रह को बन्धन मानता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है । जो परिग्रह को सुख का कारण समझता है, वह उसे कदापि नहीं त्याग सकता ।
अब यह देखते हैं कि अपरिग्रह-व्रत का पालन कब हो सकता है ? कोई भी व्यक्ति अपरिग्रही तभी बन सकता है, जब वह अपने में से इच्छा को बिलकूल ही निकाल दे, उसमें किसी पदार्थ की लालसा रहे ही नहीं। जब तक किसी भी पदार्थ लालगा है, तब तक कोई भी व्यक्ति अपरिग्रही