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करती थी । आजकल की विवाह प्रथा इसके विपरीत कार्य करती है । बोल - विवाह, बेजोड़ -विवाह और विवाह की खर्चीली पद्धति, समाज में प्रशान्ति उत्पन्न करती है, लोगों को दुराचार में प्रवृत्त करती है और रुग्ण एवं अल्पायुषी सन्तान द्वारा समाज का अहित करती है ।
-समाधान
वैवाहिक विषय के वर्णन पर से कोई यह कह सकता है कि साधुओं को इन सांसारिक बातों से क्या मतलब और वे ऐसी बातों के विषय में उपदेश क्यों दें ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि इन सांसारिक वातों से साधु लोग परे हैं लेकिन साधुओं का धार्मिक जीवन नीति- पूर्ण संसार पर ही अवलम्बित है । यदि संसार में सर्वत्र अनीति छा जाये तो धार्मिक जीवन के लिए स्थान भी नहीं रह सकता । इसी दृष्टिकोण से विवाह की विधि बताने के लिए ही शास्त्रों की कथा में विवाह बन्धन में जुड़ने वाले स्त्री-पुरुष की समानता आदि का वर्णन किया है । यह बात दूसरी है कि उनमें बाल-विवाह, असमय के सहवास ग्रादि का निषेध नहीं है । लेकिन उस समय इस प्रकार की कुप्रथाएं थीं ही नहीं, इसलिए इस प्रकार के उपदेश की भी आवश्यकता न थी । अन्यथा पूर्ण ब्रह्मचर्य का ही विधान करने वाले होने पर भी जैन - शास्त्र ऐसे अपूर्ण नहीं हैं कि उनमें सांसारिक जीवन की विधि पर कथाओं द्वारा प्रकाश न डाला गया हो । 'सरियावया, सरीसतया' आदि पाठ इसी बात के द्योतक हैं कि विवाह समान युवावस्था में ही होता था ।