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________________ देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत मातृवत्परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत् । आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति ।। 'जो मनुष्य पराई स्त्री को माता के समान जानता है, पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान मानता है और सब प्राणियों को अपने ही समान देखता है, वही यथार्थ देखने वाला है ।' १-विवाहित जीवन में ब्रह्मचर्य ऊपर यह तो कहा जा चुका है कि जो पुरुप या स्त्री पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने में समर्थ हैं, उन्हें विवाह न करना चाहिए और जो ऐसा करने में असमर्थ हैं, उनके लिए विवाह करना अनुचित भी नहीं माना जाता । अब देखना यह है कि विवाह करके भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है या नहीं ? और किया जा सकता है तो किस रूप में ? प्रत्येक बात का ऊचे से ऊंचा और नीचे से नीचा प्रादर्श रहता ही है । मनुष्यमात्र से एक ही आदर्श की ओर चलने की प्राशा करना उचित नहीं है, क्योंकि सब लोगों में समान बुद्धि, शक्ति, साहस, धैर्य आदि नहीं होते । इस
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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