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________________ ( २६१) प्रमाद कषाय आदि आभ्यन्तर विचार रूप पदार्थों से भी ममत्व होता है और बाह्य दृश्यमान-जड़ तथा चेतन पदार्थों से भी । आभ्यन्तर परिग्रह के अन्तर्गत कहे गये मिथ्यात्व अविरति कषाय आदि का स्वरूप शास्त्रों में विस्तृत रीति से बताया गया है । यदि इनके स्वरूप और भेदोपभेद का पूर्ण विवरण यहां दिया जाय तो विषय बहुत बढ़ जायेगा। इसलिए इस विषय का वर्णन संक्षेप में ही किया जाता है। मिथ्यात्व -जिस मोहनीय कर्म के उदय होने पर आत्मा, आत्मभाव को विस्मृत कर परभाव यानी पौद्गलिक भाव में ही रमण करे, या प्रकट में तत्त्वों की यथार्थ व्याख्या करके भी हृदय में विपरीत विचार रखे, वीतराग के वाक्यों को न्यूनाधिक रूप में श्रद्धे और अनेकान्त-स्यादवादमय सिद्धान्त को एकान्तवाद का रूप दे, वह मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व भी परिग्रह है । तीन वेद- आत्मा अपने स्वरूप को भूल कर जिस विकृत अवस्था के प्रवाह में बहे और स्त्रीत्व, पुरुषत्व या नपुंसकता को वेदे, उस अवस्था का नाम वेद है । यह तीन प्रकार का वेद भी आभ्यन्तर परिग्रह में है । छः नोकषाय- हास्यादिक छः अवस्थाएं भी आभ्यन्तर परिग्रह में हैं। किसी के संयोग वियोग का या पौद्गलिक लाभ हानि से कौतूहल पैदा होना, हास्य कहलाता है । किसी शुभ पदार्थ के संयोग से हर्ष या अशुभ पदार्थ के संयोग से विषाद करना, रति, अरति कहलाता है। किसी अप्रिय पदार्थ को देख कर डरना, भय कहलाता है । किसी प्रिय पदार्थ के वियोग से दुःखित होना शोक कहलाता है ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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