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सादगी की ही तरह सरलता का होना भी आवश्यक है । जिसमें सरलता नहीं है, वह भी व्रत का पालन नहीं कर सकता । ऐसा व्यक्ति, अपनी बुद्धि का उपयोग व्रत में गली निकालने में ही करता है । वह आदमी व्रत में भी कपट चलाता है ।
व्रत स्वीकार करके फिर उसमें कपट चलाने या गली निकालने से व्रत का महत्त्व नष्ट हो जाता है । बहुत से लोग व्रत लेते समय यह सोचते हैं कि हम जितनी मर्यादा कर रहे हैं, हमको उतना ही मिलना कुठिन है तो अधिक तो मिल ही कैसे सकता है ! इस तरह सोच करके पहले ही जो पास है उससे - बहुत अधिक की मर्यादा करते हैं, परन्तु योगायोग से जब मर्यादा इतना धन हो जाता है और उससे भी बढ़ने लगता है, तब व्रत में कपट चलाने लगते हैं । ऐसे लोग उस समय अपनी बढ़ी हुई सम्पत्ति को सन्तान या स्त्री के नाम पर कर देते हैं, उनके विवाहादि खर्च खाते में अमानत कर लेते हैं और फिर भी यह समझते हैं कि हमारे व्रत में कोई दूषण नहीं लगा । लेकिन वस्तुतः ऐसा करना, व्रत में कपट चलाना और व्रत को भंग करना है क्योंकि व्रत लेते समय इस प्रकार की मर्यादा नहीं की थी ।
सच्चा व्रतधारी, अपने व्रत से बाहर की कोई भी वस्तु अपने पास न रखेगा, फिर चाहे वह कैसी भी हो और किसी भी तरह से क्यों न मिलती हो । अररणक श्रावक को एक देव ने मिट्टी के गोले में बन्द करके दो जोड़ कुण्डल दिये थे । यदि अरणक चाहता तो कह सकता था कि ये