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उल्लंघन का प्रारम्भ अतिक्रम से होता है और अन्त अनाचार की शक्ल में होता है । यथा-कोई मनुष्य असत्य बोलने के लिये उद्यत हुआ। उसका जैसे ही असत्य बोलने का विचार हुआ अतिक्रम हो गया, यानि उसने व्रत की पहली मर्यादा को तोड़ डाला । अर्थात् किसी व्रत को भंग करने के संकल्प का नाम अतिक्रम है । पश्चात् संकल्प को पूरा करने का जब प्रयत्न करता है, यानि झूठ बोलने के साधन जुटाता है, उसका नाम 'व्यतिक्रम' है । ऐसा करना व्रत की दूसरी मर्यादा का उल्लंघन करना है। फिर व्रत की अपेक्षा रखता हुआ, कुछ अंश में व्रत का नाश करता है, उसका नाम 'अतिचार' है । शास्त्र में जहां भी अतिचार का उल्लेख है वहां सब जगह व्रत की तीसरी मर्यादा का अर्थात् मध्यम श्रेणी का उपदेश किया है । लेकिन व्रत की अपेक्षा न करके संकल्प-रूप भंग किया जाय तो वह अनाचार हो जाता है।
इस दूसरे व्रत के ऊपर वर्णन किये हुए पांच अतिचार हैं, जिनके विषय में पृथक-पृथक व्याख्या की जाती है ।
१- सहस्तब्भक्खाणे बिना विचार किये एकदम किसी को मिथ्या दोष लगा देना, जैसे तू चोर है, या तू जार है इत्यादि । यह पहला सहसा अभ्याख्यान नाम का अतिचार है।
इस अतिचार के विषय में जितनी भी व्याख्या की जाय, कम है, क्योंकि आजकल बिना विचारे एकदम किसी पर दोषारोपण कर देना सहज कार्य बन गया है । दोष की सत्यता पर विचार किये बिना ही किसी पर दोष लगा