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( ३१४) मुझे अपनी रूढ़ि परम्परा न त्यागनी पड़े आदि प्रकार की चिन्ता और ऐसा भय भी परिग्रह रूप ही है । इसी प्रकार विद्या सूत्रज्ञान आदि भी कभी-कभी परिग्रह रूप हो जाते हैं । मैं इतने सूत्रों का जानकार हूँ, मैं अमुक-अमुक विद्या जानता हूँ आदि अहंभाव, विद्या और सूत्रज्ञान को भी परिग्रह रूप बना देता है ।
- कुछ साधुओं को समाज के धन की भी चिन्ता रहती है । मेरे अनुयायियों का धन खर्च होता है, इस विचार से कई साधु चिन्तित रहते हैं और अनुयायियों के धन की रक्षा का प्रयत्न करते हैं । यह भी एक परिग्रह ही है । यदि इसको परिग्रह न कहा जायेगा तो कुटुम्ब का वृद्ध आदमी अपने कुटुम्ब के द्रव्य की रक्षा की जो चिन्ता करता है- जो प्रयत्न करता है-वह भी परिग्रह न कहा जायेगा ।
कुछ साधुओं को अपनी प्रसिद्धि की बहुत इच्छा रहती है । इसके लिए वे स्वयं ही अथवा अनधिकारियों या अनु. यायियों द्वारा कोई उपाधि प्राप्त करके अपने नाम के साथ उपाधि लगा लेते हैं, लेख और पुस्तकें दूसरों से लिखवा कर अपने नाम से प्रकाशित करवाते हैं, सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते हैं, अथवा ऐसे ही अन्य कार्य भी करते हैं। लेकिन वस्तुतः प्रसिद्धि की इच्छा भी परिग्रह ही है । जब तक इस प्रकार का भी परिग्रह है, तब तक अपरिग्रह-व्रत का पूर्णतया पालन हो ही नहीं सकता । अपरिग्रह-व्रत का पालन तो तभी हो सकता है, जब हृदय में किसी भी प्रकार की चाह न रहे, किसी भी वस्तु से ममत्व न हो, किसी भी प्रकार की चिंता न हो, न किसी भी तरह का भय ही रहे, किन्तु निस्पृह,