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( ३१३ ) अपरिग्रह-व्रत का पालन करने के लिए मान-बड़ाई की चाह को हृदय से निकाल देना आवश्यक है । यदि इस प्रकार की चाह बनी हुई है तो फिर अपरिग्रह-व्रत भी नहीं है ।
यहां आजकल के साधुनों की कुछ समालोचना करना अप्रासांगिक न होगा । आजकल के बहुत से साधु अथवा साध्वी और सब कुछ तो त्याग देते हैं, लेकिन शिष्य-शिष्या की इच्छा-मूर्छा तो उन्हें दबा ही डालती है । शिष्य-शिष्या की इच्छा-मुर्छा. की प्रेरणा से उनके द्वारा ऐसे-ऐसे कृत्य भी हो जाते हैं कि जैसे कार्य सन्तान की इच्छा-मूर्छा वाले गृहस्थ से भी न होते होंगे । यद्यपि शिष्य-शिष्या की इच्छामूर्छा रखने वाले साधु-साध्वी प्रकट में यह अवश्य कहते हैं कि हम धर्म या सम्प्रदाय की वृद्धि के लिए ऐसा करते हैं, परन्तु विचार करने पर ज्ञात होगा कि शिष्य-शिष्या की इच्छा-वाले साधु-साध्वी में और सन्तान की मूर्छा वाले गृहस्थ स्त्री-पुरुष में क्या अन्तर रहा ? इच्छा-मूर्छा की दृष्टि से तो दोनों समान ही ठहरते हैं और धर्मवृद्धि का कहना तो एक बहाना-मात्र है। हां कोई-कोई महात्मा ऐसे भी हैं जो धर्म-वृद्धि के लिए ही शिष्य-शिष्या बनाते हैं, लेकिन उनमें शिष्य-शिष्या की इच्छा-मूर्छा नहीं होती ।
शिष्य-शिष्या की ही तरह, कई साधु-साध्वियों के लिए सम्प्रदाय और उसकी रूढ़ि परम्परा भी परिग्रह रूप हो जाती है । यह मेरी सम्प्रदाय या परम्परा है, इसलिए चाहे यह सम्प्रदाय या परम्परा ठीक न भी हो, तब भी मैं इसकी वृद्धि ही करूंगा, इसकी रक्षा का ही प्रयत्न करूंगा, कहीं . किसी के द्वारा मेरी सम्प्रदाय की कोई क्षति न हो जावे,