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________________ (२८) है, अर्थात् आत्मा को उसके बुरे विचारों के पुद्गल चारों तरफ से घेरे लेते हैं वह मनुष्य न करने योग्य कार्यों को भी करके, उसके फलस्वरूप नाना प्रकार के दण्ड भोगता और पाप कर्म बांधता है । ऐसा मनुष्य जितने २ कार्य करता है, वे कार्य उसे ही शांतिदाता नहीं होते । जैसे एक मनुष्य सत्य को भूल कर क्रोध से उत्तेजित होकर, किसी मनुष्य का वध कर डालता है । पश्चात् वह चाहे भाग भी जाय, किन्तु उसकी आत्मा को कदापि सुख नहीं मिलता। जीवन भर उसकी आत्मा उसे कोसती रहती है। यदि संयोग से वह पकड़ लिया गया और न्यायाधीश ने उसे प्राण-दन्ड दिया, तो फैसला सुनने के समय से प्राण नाश हो जाने के समय तक वह अपने ही विचार में कितनी ही बार मरता और जीता है। जिसके हृदय में सत्य होता है, वह मृत्यु को सम्मुख उपस्थित देख कर भी नहीं घबराता। यदि कोई मनुष्य उसका वध करने चलता है, तब भी वह ऐसी घबराहट में नहीं पड़ता, जैसी घबराहट में असत्य का आश्रय लेने वाला मनुष्य पड़ जाया करता है । सारांश यह है कि सत्य के पालन करने वाले को किसी भी समय अशान्ति नहीं होती। सत्य इस लोक और परलोक में कल्याण करने वाला और असत्य चक्कर में डालने वाला है। इन दोनों के भेदों को जानकर भी, जो मनुष्य सत्य का पालन और असत्य का त्याग नहीं करता, वह बुद्धिमान् नहीं कहा जाता । जो लोग, सत्य में भय और असत्य में सुख मानते हैं, वे भारी भ्रम में हैं । उनके हृदय की वृत्तियां ही इस ढंग की बन गई हैं, जिससे वे ऐसा समझने लग गये हैं । किन्तु
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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