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________________ ( २ ) वास्तव में यह बात नहीं है । सच्चा सुख तो सत्य के ग्रहरण करने से ही मिल सकता है । जिस प्रकार अफीम खाने वाला व्यक्ति अफीम खाने में ही सुख मानता है, किन्तु वास्तव में देखा जाय तो अफीम न खाने में ही सुख है, इसी प्रकार असत्य का आश्रय ग्रहण करने वाला व्यक्ति भी असत्य में ही सुख समझता है किन्तु उसका यह व्यसन छूट जाय तो वह भी मानने लगे कि मैं भूल करता था, वास्तविक सुख तो सत्य का आश्रय ग्रहण करने से ही हो सकता है । जिस प्रकार अफीम का नशा छोड़ने वाले मनुष्य को पहले कष्ट का अनुभव होता है, उसी प्रकार असत्य को छोड़कर सत्य ग्रहण करने वाले को भी कुछ कष्ट-सा अनुभव होता है । किन्तु यदि उसके हृदय में सद्ज्ञान का प्रकाश उदय हो जाता है, तो वह इस कष्ट को बिना अनुभव किये ही पार लग जाता है । जिस प्रकार, बन्दर पींजरे में कैद होकर अटपटापन अनुभव करता है, उसी प्रकार चञ्चल चित्त वाले मनुष्य को भी सत्य मार्ग का अबलम्बन करने में बड़ा अटपटापन लगता है क्योंकि उसे असत्य मार्ग पर चलने का अभ्यास हो गया है और वह उस मार्ग का व्यसनी वन गया है । यह व्यसन या तो थोड़ा सा कष्ट सहकर छूट सकता है या किसी पूर्ण ज्ञानी के उपदेश से । सत्य से मनुष्य को कभी भी शान्ति नहीं मिल सकती । शान्ति सदैव सत्य का आश्रय लेने से ही मिला करती है । जो मनुष्य असत्य में सुख का अनुभव करते हैं, उन पर असत्य का पूरा कब्जा हो चुका है, ऐसा समझना चाहिए ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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