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'यह मेरा है, वह तेरा है, मुझे यह करना है, यह नहीं करना है' इस प्रकार की घटना संसार में अनवरत रूप से दिन रात चलती रहती है । जीवन छोटा है, काम बहुत है । ऐसी अवस्था में कोई भी व्यक्ति अपना काम पूरा नहीं कर सकता । किसी व्यक्ति ने अपनी इच्छानुसार संसार के सब काम कर लिए हों और वह कृतकृत्य हो गया हो, ऐसा आज तक कभी हुआ नहीं, हो सकता भी नहीं । मैंने अमुक कार्य किया है और अमुक कार्य करूंगा, इस प्रकार की लालसा जीव के साथ सदैव चिपटी रहती है । यह लालसा कभी पूरी नहीं हो सकती । कंठ के आभूषण तैयार हुए न हुए कि हाथ के आभूषणों की चर्चा होती है । हाथ के आभूषण तैयार होते ही पैर के आभूषणों की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार लालसा का कहीं अन्त नहीं । चांदी के बन गये तो सोने के आभूषणों की कमी रहती है । यदि भाग्यवश सोने के भी बन गये तो हीरामाणिक के आभूषणों की इच्छा बलवती हो उठती है । इस प्रकार तृष्णा आकाश के समान असीम है । इस तृष्णा को सीमित कर लेना ही परिग्रह - परिमाणव्रत है ।
परिग्रह की व्युत्पत्ति करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है - ' परिग्रहणं परिग्रहः ।' अर्थात् जिसे ग्रहण किया जाय, वह ' परिग्रह' है । ग्रहरण उसे ही किया जाता है, जिससे ममत्व है । जिससे किसी प्रकार का ममत्व नहीं है, उस वस्तु को ग्रहण नहीं किया जाता, न पास ही रखा जाता है । इस प्रकार जिसको ममत्व भाव से ग्रहण किया जाता है, वही 'परिग्रह' है ।
परिग्रह का अर्थ ममत्व भाव है, इसलिए जिनसे